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विश्व॑कर्मन् ह॒विषा॒ वर्द्ध॑नेन त्रा॒तार॒मिन्द्र॑मकृणोरव॒ध्यम्। तस्मै॒ विशः॒ सम॑नमन्त पू॒र्वीर॒यमु॒ग्रो वि॒हव्यो॒ यथास॑त् ॥२४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

विश्व॑कर्म॒न्निति॒ विश्व॑ऽकर्मन्। ह॒विषा॑। वर्द्ध॑नेन। त्रा॒तार॑म्। इन्द्र॑म्। अ॒कृ॒णोः॒। अ॒व॒ध्यम्। तस्मै॑। विशः॑। सम्। अ॒न॒म॒न्त॒। पू॒र्वीः। अ॒यम्। उ॒ग्रः। वि॒हव्य॒ इति॑ वि॒ऽहव्यः॑। यथा॑। अस॑त् ॥२४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:17» मन्त्र:24


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यों को कैसा पुरुष राजा मानना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (विश्वकर्मन्) सम्पूर्ण शुभकर्मों के सेवन करनेहारे सब सभाओं के पति राजा ! आप (हविषा) ग्रहण करने योग्य (वर्द्धनेन) वृद्धि से जिस (अवध्यम्) मारने के अयोग्य (त्रातारम्) रक्षक (इन्द्रम्) उत्तम सम्पत्तिवाले पुरुष को राजकार्य में सम्मतिदाता मन्त्री (अकृणोः) करो, (तस्मै) उसके लिये (पूर्वीः) पहिले न्यायाधीशों ने प्राप्त कराई (विशः) प्रजाओं को (समनमन्त) अच्छे प्रकार नम्र करो, (यथा) जैसे (अयम्) यह मन्त्री (उग्रः) मारने में तीक्ष्ण (विहव्यः) विविध प्रकार के साधनों से स्वीकार करने योग्य (असत्) होवे, वैसा कीजिये ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। सब सभाओं के अधिष्ठाता के सहित सब सभासद् उस पुरुष को राज्य का अधिकार देवें कि जो पक्षपाती न हो। जो पिता के समान प्रजाओं की रक्षा न करें, उनको प्रजा लोग भी कभी न मानें और जो पुत्र के तुल्य प्रजा की न्याय से रक्षा करें, उनके अनुकूल प्रजा निरन्तर हों ॥२४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः कीदृशो राजा मन्तव्य इत्याह ॥

अन्वय:

(विश्वकर्मन्) अखिलशुभकर्मसेविन् (हविषा) आदातव्येन (वर्द्धनेन) (त्रातारम्) रक्षकम् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तं (अकृणोः) कुरु (अवध्यम्) हन्तुमयोग्यम् (तस्मै) (विशः) प्रजाः (सम्) एकीभावे (अनमन्त) नमन्तु (पूर्वीः) पूर्वैर्न्यायाधीशैः प्रापिताः (अयम्) (उग्रः) हिंसने तीव्रः (विहव्यः) विविधैः साधनैरादातुमर्हः (यथा) (असत्) भवेत् ॥२४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विश्वकर्मन् सर्वसभेश ! त्वं हविषा वर्द्धनेन यमवध्यं त्रातारमिन्द्रं राजकार्ये सम्मतिप्रदं मन्त्रिणमकृणोस्तस्मै पूर्वीर्विशः समनमन्त यथाऽयमुग्रो विहव्योऽसत् तथा विधेहि ॥२४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। सर्वसभाधिष्ठात्रा सहिताः सभासदस्तस्मै राज्याधिकारं दद्युर्यः पक्षपाती न स्यात्। पितृवत् प्रजा न पालयेयुस्ते प्रजाभिर्नो मन्तव्या, ये च पुत्रमिव न्यायेन प्रजा पालयेयुस्तदनुकूलास्सततं स्युः ॥२४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. सभेचे सर्व अधिष्ठाते व सभासद यांनी अशा पुरुषाला राज्याधिकार द्यावा जो पक्षपात न करता पित्याप्रमाणे प्रजेचे न्यायाने रक्षण करतो. अशा राजाला प्रजेने सदैव अनुकूल असावे. याविरुद्ध जो पित्याप्रमाणे प्रजेचे रक्षण करणारा नसेल तर प्रजेने त्याला कधीही राजा मानू नये.